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कृषि का गणित: व्यवस्था ऐसी हो कि बाजार में किसानों को उपज के अच्छे दाम मिलें ताकि परिवार का सही पालन-पोषण हो

नई दिल्ली।

रबी की बुआई का समय खत्म हो चुका है। लेकिन कई किसान ऐसे हैं जिनका काम पूरा नहीं हुआ है। देर से बुआई करने का बड़ा जोखिम यह है कि अगर गर्मी जल्दी शुरू हुई तो उनके हाथ कुछ नहीं आएगा। इस डर के बावजूद जैसे-तैसे धरती तक बीज पहुंचा देने की हड़बड़ी में किसान रामनिरंजन पटेल दिखे। इनमें ऐसा ही डर उपज के दाम का भी है। उन्हें नहीं पता कि आगे मौसम साथ देगा या नहीं, बाजार का या हाल होगा। ऐसा ही पंकज सिंह भी कहते हैं।
खैरा गांव के निवासी रामनिरंजन के लिए खरीफ का सीजन ठीक रहा। धान की गहाई करने के बाद जल्दी ही खरीदी का एसएमएस आ गया और 32 क्विंटल धान बेच आए। सरकार की ओर से पैसा भी उनके खाते में आ चुका है। उन्हें न्यूनतम समर्थन मूल्य के तहत 1868 रुपए प्रति क्विंटल का भाव मिला है। वे उपज के वाजिब दाम की गारंटी चाहते हैं। कृषि कानून के विरोध के इतर छिरहाई निवासी राजीवलोचन सिंह भावांतर के हश्र को गिनाते हैं।

उन्होंने बताया, 2018 में विधानसभा चुनाव से पहले सरकार ने भावांतर पर खरीदी की मंजूरी दी थी।
व्यापारियों ने जो भी फसल खरीदी उसके एमएसपी से नीचे रहने के अंतर की भरपाई राज्य सरकार ने की। पर सच्चाई यह है कि प्रदेश में कोई भी उपज ऊंचे दामों पर नहीं बिकी। जरूरत खेती को फायदे का सौदा बनाने की है।

जानकारी कम, हौवा ज्यादा

कृषि कानून को लेकर किसानों के बीच ज्यादा जानकारी नहीं है, इसलिए उनमें हौवा ज्यादा हावी है। किसानों की आय बढ़ाने के लिए कृषि सुधार किए जाने की बात पर यौहरा के दिवाकर कहते हैं, सरकार को ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए कि बाजार में उपज के वाजिब दाम मिल सके। ऐसा हुआ तो धान और गेहूं भर की खेती की मजबूरी से छुटकारा मिल जाएगा।

ऐसा तंत्र विकसित हो, जिससे लागत में आ सके कमी

रायपुर कर्चुलियान तहसील के छिरहाई गांव के किसान देवेंद्र सिंह को कृषि कानूनों की गहराई से जानकारी नहीं है। मोटे तौर पर उन्होंने एमएसपी, कॉन्ट्रै ट फार्मिंग के बारे में ही सुना है और किसान आंदोलन के समर्थन में हैं। देवेंद्र बताते हैं कि वे 80 फीसदी तक धान और गेहूं की खेती ही करते हैं। बीते साल मसूर की फसल पूरी तरह चौपट हो गई थी, बीज भी वापस नहीं मिला था। जबकि इस साल उड़द बर्बाद हो गई। उन्हें ठीक से नहीं पता कि आखिर हुआ या था पर इस संकट के चलते चना, मसूर, अरहर की सीमित खेती कर रहे हैं। वे बताते हैं कि जितनी फसल बोने में लागत आती है, उसके अनुपात में बाजार में दाम नहीं मिल पाते। सरकार का तंत्र भी हमारी मदद के लिए आगे नहीं आता। सुधार ऐसे हों कि खेती हमारे लिए फायदेमंद साबित हो।

कानूनन करने में बुराई नही

मऊगंज के ऊंचेहरा निवासी कन्हैया सिंह कहते हैं, कॉरपोरेट स्टाइल में नहीं पर कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग जैसा चलन तो किसानों के बीच बहुत पहले से है। इसे कर्ता, ठास व नकदी में खेत देना कहते हैं। ऐसा सरकार कानूनन करना चाहती है तो इसमें बुराई नहीं है पर अनुबंध की शर्तों में संतुलन जरूरी है। ऐसा ही रजिगवां के किसान रामराज पटेल भी मानते हैं।



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