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Muharram 2021: इस्लाम में क्यों मातम का महीना होता है मुहर्रम, शिया-सुन्नी इसे अलग-अलग तरह कैसे मनाते हैं

नई दिल्ली।

इस्लामिक कैलेंडर में साल का पहला महीना मुहर्रम का होता है। इसे दुखी या गम का महीना भी कहते हैं। यानी मुस्लिम समुदाय इस महीने खुशियां नहीं बल्कि, मातम मनाता है। इस महीने का दसवां दिन सबसे अहम होता है। माना जाता है कि पैगंबर-ए-इस्लाम हजरत मोहम्मद के नाती हजरत इमाम हुसैन की इसी दिन कर्बला की जंग (680 ईस्वी) में परिवार और दोस्तों के साथ हत्या कर दी गई थी। माना यह भी जाता है कि उन्होंने अपनी जान इस्लाम की रक्षा के लिए दी थी।

मुस्लिम समुदाय कई पंथों में बंटा हुआ है। उनमें दो प्रमुख हैं शिया और सुन्नी। सुन्नी आशूरा के दिन रोजा रखते हैं। पैगंबर मोहम्मद आशुरा के दिन रोजा रखते थे और शुरुआती दौर के मुस्लिमों ने इनका अनुसरण किया। सुन्नी मुस्लिम अब तक इसकी पालना करते आ रहे हैं। वहीं, मातम के इस महीने में दसवें मुहर्रम पर शिया मुस्लिम काले कपड़े पहनकर सडक़ों पर जुलूस निकालते हैं और गम मनाते हैं। जुलूस में या हुसैन या हुसैन का नारा लगाते हुए वे इस बात पर जोर देते हैं कि हुसैन ने इस्लाम की रक्षा के लिए अपनी जान दी और उनके सम्मान में वे मातम मना रहे हैं।

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शिया मुस्लिम दस दिन तक अपना दुख मनाते हैं, जबकि सुन्नी मुस्लिम मुहर्रम महीने में दो दिन यानी 9वें और दसवें या फिर दसवें और 11वें दिन रोजा रखते हैं। अशूरा के दिन दो पर्व होते हैं। एक को सुन्नी मुस्लिम मनाते हैं और दूसरे को शिया मुस्लिम। शिया मुस्लिम हुसैन की शहादत की याद में आशूरा के दिन मातम मनाते हैं। वहीं, सुन्नी मुस्लिम केवल व्रत यानी रोजा रखते हैं।

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मान्यता है कि पैगंबर मोहम्मद जब मदीना गए तो उन्होंने देखा कि इस दिन यहूदी धर्म के लोग व्रत रखते हैं। यहूदी इसलिए व्रत रखते थे क्योंकि हजरत मूसा ने इसी दिन शैतान फरोह को लाल सागर पार करके हराया था। हजरत मूसा को सम्मान देने के लिए ही यहूदियों ने इस दिन व्रत रखना शुरू किया। पैगंबर मोहम्मद भी हजरत मूसा से प्रभावित थे। उन्होंने भी अपने मानने वालों को व्रत रखने के लिए कहा। लेकिन उन्होंने इसे यहूदियों से अलग बनाने के लिए दो दिन तक व्रत रखने को कहा।



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