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देश की सियासत में जमकर झगड़ रहे हैं सत्ता के प्रतिष्ठान

नई दिल्ली.

देश के कई राज्यों खासकर गैर भाजपा शासित राज्यों में राज्यपाल और राज्य सरकार के बीच टकराव अब खुलकर सामने आ रही है। पहले दिल्ली, फिर राजस्थान और बंगाल होते—हाते यह आंच अब महाराष्ट्र में खुलकर दिखाई दे रही है। राजभवन सरकारों के फैसलों को प्रभावित कर रहे हैं, ऐसे में सरकारें खुलकर राज्यपाल की गरिमा को ही चुनौती दे रही हैं। कहा जा रहा है, महाराष्ट्र में राज्यपाल ने सरकार की ओर से भेजे गए 12 एमएलसी की सूची को मंजूरी नहीं दी तो सरकार ने उन्हें विमान से उड़ने की इजाजत नहीं दी।

हालांकि, सरकार ने कहा कि निजी यात्रा के लिए सरकारी विमान की इजाजत नहीं है। इससे आगे बढ़कर महाराष्ट्र में मुख्यमंत्री उद्दव ठाकरे ने शनिवार को राजभवन से उड़ान नहीं भरी, जबकि सामान्य तौर पर उनका हेलिकॉप्टर राजभवन में बने हेलीपेड से ही उड़ान भरता आ रहा था। माना जा रहा है कि राजभवन में बने हेलीपेड को सरकार बंद करने के निर्देश दे सकती है।

इसलिए टकराव
अक्सर केंद्र में जिस पार्टी की सरकार होती है, उस पार्टी की विचारधारा से प्रभावित व्यक्ति को ही राज्यपाल बनाया जाता है। जब केंद्र और राज्य में एक ही पार्टी की सरकार होती है, तब तो मुख्यमंत्री और राज्यपाल के संबंध अच्छे रहते हैं। दोनों के बीच कोई खास दिक्कत नहीं होती, लेकिन जब राज्य में विपक्षी दल की सरकार होती है, तो मुख्यमंत्री और राज्यपाल के मध्य कुछ फैसलों को लेकर टकराव पैदा हो जाता है।

1959 से शुरू हुआ विवाद
राज्यपाल का कार्यालय पिछले पांच दशकों से विवादास्पद रहा है। सबसे पहला विवाद 1959 में केंद्र और राज्य सरकार के मध्य राजनीतिक मतभेद की वजह से केरल के तत्कालीन गवर्नर द्वारा राज्य सरकार की बर्खास्तगी से शुरू हुआ था। इस विवाद ने 1967 में उत्तर-भारत के राज्यों में कई गैर-कांग्रेसी सरकारों के उभरने के बाद सबसे खराब रूप धारण कर लिया। पिछली सदी के आठवें दशक में दलबदल और मौकापरस्त राजनीति का एक नया दौर शुरू हुआ। ऐसे दौर में राज्यपाल की भूमिका न केवल महत्वपूर्ण हुई, बल्कि जटिल भी हुई। अचानक राज्यपाल का दफ्तर महत्वपूर्ण और विवादित हो चला। कई बार इस संवैधानिक संस्था की भूमिका पर सवाल भी खड़े हुए।

विवादों में विवेकाधिकार
मंत्रियों की नियुक्ति हो या विधेयकों को स्वीकृति देना, इसी प्रकार राज्य सरकार के कई अन्य आदेश को राज्यपाल के नाम पर ही लिया जाता है। संविधान का अनुच्छेद 163 राज्यपाल को विवेकाधिकार की शक्ति प्रदान करता है अर्थात वह स्वविवेक संबंधी कार्यों में मंत्रिपरिषद की सलाह मानने के लिए बाध्य नहीं है। यदि किसी दल को पूर्ण बहुमत नहीं मिलता है, तो राज्यपाल मुख्यमंत्री के चयन में भी अपने विवेक का उपयोग कर सकता है। किसी दल को बहुमत सिद्ध करने के लिए कितना समय दिया जाना चाहिए, यह भी राज्यपाल के विवेक पर निर्भर करता है। विवाद राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियों और कार्यप्रणाली को लेकर भी है। अक्सर आरोप लगाया जाता है कि वह राज्य के संवैधानिक प्रमुख के रूप में कार्य करने के बजाय केंद्र सरकार के एजेंट के रूप में ही ज्यादा कार्य करते हैं।


इन राज्यों का विवाद चर्चा में-

महाराष्ट्र
2019 में 23 नवंबर की सुबह राज्यपाल कोश्यारी ने राज्य में लगाए गए राष्ट्रपति शासन को हटा दिया और बिना किसी को बताए और तमाम प्रथाओं का पालन न करते हुए अचानक देवेंद्र फडणवीस को मुख्यमंत्री पद और अजीत पवार को उपमुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी थी। तब से शिवसेना, कांग्रेस और एनसीपी की महाविकास अघाडी सरकार के कोश्यारी के साथ टकराव के कई मामले सामने आ चुके हैं।

पश्चिम बंगाल
जुलाई, 2019 में राज्यपाल का पद संभालने के बाद से ही राज्यपाल जगदीप धनखड़ और ममता बनर्जी की टीएमसी सरकार के बीच खींचतान चल रही है। जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आ रहे हैं यह खींचतान और बढ़ती जा रही है। धनखड़ ने दावा किया कि बंगाल के लोगों के दिमाग में भय छा गया है और वे उसके बारे में खुलकर बात भी करने से डरे हुए हैं। वहीं, टीएमसी ने पलटवार करते हुए कहा कि राज्यपाल को इस तरह की बयानबाजी नहीं करनी चाहिए। उन्हें राज्य से वापस कर देना चाहिए।

राजस्थान
जुलाई 2020 में गहलोत सरकार पर आए संकट के समय राज्यपाल कलराज मिश्र और मुख्यमंत्री अशोक गहलोत में विवाद बढ़ गया। विधानसभा सत्र नहीं बुलाई जाने को लेकर गहलोत के समर्थन वाले विधायकों ने पांच घंटे तक धरना भी दिया। सचिन पायलट से विवाद के बाद सरकार के लिए खड़ी हुई मुश्किलों के बीच मुख्यमंत्री गहलोत ने पूर्ण बहुमत का दावा किया और कहा कि ऊपरी दबाव की वजह से राज्यपाल सत्र नहीं बुला रहे हैं।



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