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बिहार में चुनाव, ऐन मौके पर Mahagathbandhan की सियासी तबीयत हुई खराब

नई दिल्ली। बिहार विधानसभा चुनाव 2020 को लेकर सियासी जोड़ तोड़ चरम पर है। चुनाव तारीखों की आधिकारिक घोषणा किसी भी दिन हो सकता है। यानि अब मतदान के लिए भी ज्यादा समय नहीं बचा है। लेकिन महागठबंधन ( Mahagathbandhan ) में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। उसकी सेहत सियासी वायरल का शिकार होने के करीब है।

हालात यह है कि महागठबंधन के कई नेता अपनी-अपनी पार्टियां छोड़ जेडीयू में शामिल हो गए हैं। हिन्दुतान अवाम मोर्चा एनडीए में शामिल हो चुकी है। आरजेडी प्रमुख लालू यादव के दाहिने हाथ व करीबी रघुवंश प्रताप सिंह चुनाव से ठीक पहले पार्टी नेतृत्व से नाराज होकर राष्ट्रीय उपाध्यक्ष पद से इस्तीफा दे चुके हैं। मुंबई में सुशांत केस में रिया का समर्थन करने की वजह से बिहार में पहले से कमजोर कांग्रेस की अपनी स्थिति और खराब कर ली है।

आरजेडी के रुख से शरद यादव भी निराश

शरद यादव भी महागठबंधन को झटका देने के मूड में हैं। बात यहीं तक सीमित नहीं है। आरजेडी के युवा नेता तेजस्वी यादव की रुख की वजह से कई और छोटी पार्टियां भी महागठबंधन को कमजोर करने में जुट गई हैं। इनमें आरएलएसपी, वीआईपी व अन्य पार्टियां शामिल हैं। अब तो वामपंथी पार्टियां भी महागठबंधन नेतृत्व से निराश हो गया है।

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सीटों पर अभी तक नहीं बनी सहमति

सीटों के आवंटन को लेकर समन्वय समिति न गठित होने से नाराज होकर हिन्दुस्तान अवाम मोर्चा प्रमुख जीतन राम मांझी ने एनडीए का हाथ थाम लिया। वहीं अब आरएलएसपी और विकासशील इंसान पार्टी भी महागठबंधन को झटका देने के मूड में है। ताज्जुब की बात यह है कि महागठबंधन में शामिल दो प्रमुख पार्टी आरजेडी और कांग्रेस में भी सीटों के आवंटन कोई सहमति नहीं बन पाई है। इस बीच आरजेडी ने वामपंथी पार्टियों को साथ लेकर चुनाव लड़ने के संकेत दिए थे, लेकिन कम सीट मिलने की वजह से उसने भी अलग राह पर चलने के संकेत दे दिए हैं।

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तेजस्वी यादव इस जिद पर अड़े हैं कि छोटे दल के नेता या तो आरजेडी या कांंग्रेस के चुनाव चिन्ह पर चुनाव लड़ें। आरजेडी ने कांग्रेस को इस बारे में साफ-साफ संकेत दे दिया है कि इस मामले में भी हम समझौता करने के मूड में नहीं हैं।

70 से कम सीट कांग्रेस को मंजूर नहीं

दूसरी तरफ कांग्रेस के एक नेता का कहना है कि हमारी पार्टी 243 में से 70 सीटों पर चुनाव लड़ेगी। लेकिन सीटों को लेकर अभी तक कोई फार्मूला तय नहीं हो सका है। यानि गठबंधन में किस सीट से कौन चुनाव लड़ेंगा इस बात को लेकर भी स्थिति अभी तक स्पष्ट नहीं हुई है। यही वजह है कि सहयोगी दलों के बीच बेचैनी पैदा हो गई है।

कहने का मतलब यह है कि पिछले कुछ महीनों की गतिविधियों पर नजर डालें तो स्पष्ट है कि बिहार में महागठबंधन के बीच अब कोई बंधन नहीं बचा है। बड़ी से लेकर छोटी पार्टियां अपनी राह पर चलने का लगभग फैसला कर चुकी हैं।

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चुनाव प्रचार में भी पिछडा महागठबंधन

चुनाव प्रचार की बात करें तो इस मामले में एनडीए से महागठबंधन बहुत पीछे है। एनडीए की बात करें तो पीएम मोदी जहां बीजेपी के लिए चुनाव प्रचार अभियानों का उद्घोष कर चुके हैं वहीं सीएम नीतीश कुमार भी जेडीयू के लिए चुनावी शंखनाद कर चुके हैं। दूसरी तरफ, महागठबंधन में न पार्टियों की बैठक और न नेताओं के बीच संवाद हो रहा है। सिर्फ कहने के लिए बिहार में गठबंधन बचा है। जबकि गठबंधन की गांठें ढीली पड़ चुकी हैं। एक तरह से बिहार में विपक्ष बिखराव की ओर बढ़ रहा है।

कोरोना, बाढ़ और हिंसा को मुद्दा बनाने में विपक्ष विफल

विपक्षी पार्टियां कोरोना वायरस महामारी को लेकर सरकार की कमजोर तैयारी, गोपालगंज ट्रिपल मर्डर, विकास की गति कमजोर पड़ना, बाढ़ से लोगों को बेहाल होना व अन्य मामलों को महागठबंधन के नेता सियासी एजेंडा भी नहीं बना सके।

सहयोगी दलों के नेता परेशान

तय है कि आरजेडी नेतृत्व वाले महागठबंधन ने अबतक तय नहीं किया है कि किस सीट से किस पार्टी का उम्मीदवार चुनाव लड़ेगा। परिणम यह है कि सहयोगी दलों के नेता परेशान हैं। आरजेडी और कांग्रेस के बीच उपेंद्र कुशवाहा की अगुवाई वाली आरएलएसपी और मुकेश साहनी की अगुवाई वाली विकास-शील इंसां पार्टी (वीआईपी) जैसे छोटे दलों को समायोजित करने के लिए सहमति नहीं बन रही है। कुल मिलाकर बिहार में महागठबंधन चुनावी मौसम में बिखराव की ओर है, जो सत्ताधारी गठबंधन एनडीए के लिए लाभ का सौदा हो सकता है।



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