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Lockdown 3.0: बिहार में 17 एमएलसी का कार्यकाल खत्म, मंत्री पद पर बने रहेंगे नीतीश के करीबी 2 नेता

नई दिल्ली। देशभर में लागू लॉकडाउन 3.0 ( Lockdown 3-0 ) के बीच बिहार विधान परिषद ( Bihar Legislative Council) के 17 सदस्यों का कार्यकाल समाप्त हो गया। चुनाव आयोग ( Election commission ) ने कोरोना वायरस ( Coronavirus ) संकट और लॉकडाउन को देखते हुए 3 अप्रैल को इन सदस्यों का चुनाव आगामी आदेश तक के लिए स्थगित कर दिया थां।

चुनाव आयोग के इस फैसले की वजह से अब नीतीश सरकार ( Nitish Government ) के दो मंत्री अब न तो विधानसभा और न ही विधान परिषद के सदस्य हैं। संविधान विशेषज्ञ बताते हैं कि किसी भी सदन का सदस्य नहीं होने के बावजूद मंत्री अशोक चौधरी ( Ashok Chaudhary ) और नीरज कुमार ( Neeraj Kumar ) अगले 6 महीने पद पर कायम रहेंगे।

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अनुच्छेद 164 ( Article 164 ) के तहत किसी व्यक्ति के किसी भी सदन का सदस्य नहीं रहने पर भी वह 6 माह तक मंत्री के पद पर बना रहा सकता है। हालांकि इस अवधि में उसके लिए दोनों में से किसी भी सदन का सदस्य बनना जरूरी है।

दूसरी तरफ चुनाव आयोग के फैसले की वजह से शिक्षक निवार्चन क्षेत्र के लिए 4 और स्नातक निवार्चन क्षेत्र के लिए 4 सीटों पर चुनाव होना था। साथ ही विधानसभा कोटे ( Assembly quota ) से भी 9 सीटों के लिए भी चुनाव की प्रक्रिया सम्पन्न होनी थी, जो नहीं हुई।

चुनाव स्थगित होने से जिन दिग्गज नेताओं का बुधवार को कार्यकाल समाप्त हो गया उनमें, बिहार विधान परिषद के कार्यकारी सभापति हारुन रशीद, जेडीयू के अशोक चौधरी, पीके शाही, सोनेलाल मेहता, सतीश कुमार और हीरा प्रसाद बिंद, भाजपा के कृष्ण कुमार सिंह, संजय मयूख के अलावा राधामोहन शर्मा के नाम शामिल हैं।

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जेडीयू के स्नातक निवार्चन क्षेत्र पटना से सूचना एवं जनसंपर्क मंत्री नीरज कुमार, तिरहुत स्नातक क्षेत्र से निर्दलीय देवेशचंद्र ठाकुर, दरभंगा स्नातक क्षेत्र से जेडीयू के दिलीप चौधरी, कोसी स्नातक क्षेत्र से एनके यादव हैं।

वहीं शिक्षक निवार्चन क्षेत्र पटना से भाजपा के प्रो. नवलकिशोर यादव, तिरहुत शिक्षक क्षेत्र से भाकपा के प्रो. संजय कुमार सिंह, दरभंगा शिक्षक निवार्चन क्षेत्र से कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष डॉ. मदन मोहन झा और सारण शिक्षक निवार्चन क्षेत्र से भाकपा के केदारनाथ पांडेय का नाम शामिल है।

बिहार के इतिहास में तीसरा मौका

बिहार विधान परिषद के अब तक के इतिहास में यह तीसरा मौका है जब सदन के प्रमुख का पद चुनाव न होने से खाली हो गया। इससे पहले 1980 और 1985 में सभापति और उप सभापति का पद खाली था। संविधान विशेषज्ञ बताते हैं कि अगर सभापति और उप सभापति का पद खाली है तो राज्यपाल में शक्ति आ जाती है।



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